योग और राजनीति का अनुलोम-विलोम

प्रस्तुतकर्ता व्‍यंग्‍य-बाण Thursday, November 18, 2010


देश के जाने माने योगगुरू बाबा रामदेव अब राजनीतिक पारी खेलने की तैयारी में हैं। योग की घुट्टी पिलाकर रोग भगाने के बाद अब वे राजनीति की खुराक देंगे। तमाम लोग भी चाहते हैं कि राजनीति में बढ़ती जा रही गंदगी पर रोक लगे या फिर उसका सफाया ही हो जाए। लेकिन क्या बाबा रामदेव की मंशा को पंख लग पाएंगे ?आए दिन नई बीमारी, नए रोग और उसके निदान के लिए जूझते देश-विदेश के हजारों वैज्ञानिक, डाक्टर। ऐसे में बाबा रामदेव ने प्राचीन युग से चल रहे योग को लोगों के सामने पेश किया, जिसका नतीजा भी लोगों को देखने को मिला, लाखों लोगों ने योग अपनाया, प्राणायम, अनुलोम-विलोम किया, स्वस्थ भी हुए और देश-विदेश में बाबा रामदेव योगगुरू के रूप में छा गए। पतंजलि योगपीठ नाम की संस्था बनाकर अब देश भर में उन्होंने योग डाक्टर भी नियुक्त किए हैं और योग की क्लिनिक में लोग अपना रोग भगाने के लिए बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। यहां तक तो ठीक था, लेकिन राजनीति में आने का इरादा कुछ अटपटा सा है क्योंकि राजनीति का इतिहास देखा जाए तो इसका कालापन सदियों से बरकरार है। राजा-रजवाड़ों के दौर में सत्ता की कुर्सी हथियाने के लिए खूनी संघर्ष, धोखेबाजी, युध्द, गद्दारी और तमाम तरह के प्रपंच चलते रहे हैं। आजाद भारत में शुरूआती दौर की राजनीति भी कोई साफ सुथरी नहीं रही, यह हमने कई बार सुना हुआ है कि स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में अधिकतर नेता लौहपुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के हिमायती थे, लेकिन महात्मा गांधी जिद पर अड़े रहे कि प्रधानमंत्री तो नेहरू जी ही बनेंगे। आखिरकार पंडित नेहरू ही प्रधानमंत्री बने। कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि अगर राजनीति को बाबा रामदेव आसान समझ रहे हैं तो यह शायद उनकी भूल होगी। क्योंकि राजनीति में सफलता के लिए क्या-क्या करना पड़ता है, लोग अब समझने लगे हैं। देश के राजनीतिज्ञों पर यह आरोप तो लगते रहे हैं कि चुनाव में करोड़ों रूपए देकर वोट खरीदे गए, इसलिए कुर्सी तक पहुंचे। लेकिन इसमें दोष सिर्फ उस नेता का ही है जो नोट देकर वोट खरीदते हैं, जनता इसमें शामिल नहीं ? देश की गरीब आबादी, रोजगार की समस्या से जूझते लोगों का चुनाव में नोट मिलते वक्त ईमान नहीं जागता कि अगर नोट लेकर वोट देंगे, तो इसका परिणाम भी हम ही भुगतेंगे ? इसके पीछे कुछ मजबूरियां हो सकती हैं या फिर स्वार्थ, जैसे कि यह दोबारा कब आएगा, इससे अच्छा है नोट ले लो, यही मौका है, जो दे रहा है, ले लो, चुनाव जीत गया तो फिर कुछ मिले न मिले। लेकिन चुनाव में सिर्फ गरीब-गुरबे भी नहीं मध्यम वर्गीय, अमीरों के भी अपने-अपने स्वार्थ होते हैं। मसलन चुनाव जीतने के बाद कहीं नौकरी मिलने की आस, रोजगार मिलने का लालच, तो कहीं करोड़ों रूपए के ठेके मिलने की चाहत होती है। कुल मिलाकर राजनीति का रंग अब भी स्याह ही है, न कि रंगबिरंगा, जिसे देखकर, महसूस करके किसी आम आदमी का मन खिल सके, आनंद महसूस कर सके। बाबा रामदेव ने अगर यह ठाना है कि वे राजनीति में आएंगे, तो इसके परिणामों को लेकर उन लोगों की उम्मीदें जाग गई हैं जो देश में अच्छी और साफ-सुथरी राजनीति के सपने देखते हैं, अपने प्रतिनिधियों को ईमानदार और जुझारू देखना पसंद करते हैं। लेकिन योग भगाए रोग की तर्ज पर राजनीति की घुट्टी आम जनता को पिलाना आसान न होगा, क्योंकि राजनीति, मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है। योग और अनुलोम-विलोम करके लोग अपनी सांसों तथा मन पर नियंत्रण तो पा सकते हैं, कुछ बीमारियां भी दूर भगा सकते हैं। पर राजनीति के अनुलोम-विलोम से दागदार और भ्रष्टाचारी नेताओं को, किसी रोग की तरह बाहर का रास्ता दिखाना इतना भी आसान नहीं होगा। बाबा रामदेव की राजनीतिक पारी की सफलता के लिए सिर्फ ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले नेता, कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि अपने स्वार्थों से परे, ईमानदार मन वाली, ईमानदार जनता भी चाहिए। क्यांेकि जनता के वोट ही प्रतिनिधि तय करते हैं, क्या ऐसा होना संभव है ?

1 Responses to योग और राजनीति का अनुलोम-विलोम

  1. Anonymous Says:
  2. बहुत सुन्दर आलेख,बाबा रामदेवजी ने बहुत कम समय मे बहुत अधिक लोकप्रियता अर्जित की है,उनके शिष्य भी बहुत नामी लोग है,जो उन्की सभाओ मे ही आपार जन समुह से पता चलता है यदि राम देव जी अपने शिष्यो को ही इमान्दार बना दे उन्हे जो बडे,व्यापरी उद्योग्पति है इमान्दारी से कर देने बाबत शपथ दिला दे तो उन्हे किसी आन्दोलन की जरुरत ही नही होगी,शुरुआत तो घर से ही होनी चहिये,अप्नो से होनी चहिये...............

     

खबर एक्‍सप्रेस आपको कैसा लगा ?

Powered by Blogger.

widgets

Video Post

About Me

My Photo
व्‍यंग्‍य-बाण
दैनिक छत्‍तीसगढ में ब्‍यूरो चीफ जिला जांजगीर-चांपा
View my complete profile

Followers