हम सारी दुनिया मांगेंगे...

प्रस्तुतकर्ता व्‍यंग्‍य-बाण Saturday, April 30, 2011 ,

विश्व मजदूर दिवस


जिंदगी में सफल होने के लिए दो चीजों की काफी जरूरत है, हिम्मत और मेहनत। हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती, मेहनत करने वाले कभी विफल नहीं होते। दुनिया की संरचना में भी मेहनत करने वाले श्रमवीरों ने समय-समय पर नए इतिहास रचे हैं। अपना पसीना बहाकर आसमान छूती इमारतों को खड़ा करने वाले आज भी जमीन पर हैं और बुलंद इमारतों के उपर खड़ा धनाढ्य वर्ग मुस्कुराता हुआ इठला रहा है।
आज जिस खूबसूरत इमारत ताजमहल को देखने के लिए देश ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी लोग आते हैं। इस अजूबे को देखकर रोमांच सा महसूस करते हैं, शाहजहां को याद करते हैं, मुमताज की कहानियां कहते हैं, इसे प्यार का प्रतीक बताते हैं, पर उन श्रमवीरों को भूल जाते हैं, जिनकी कारीगरी का कोई सानी नहीं था। इतना सुंदर ताजमहल खड़ा करने के एवज में उन्हें क्या मिला ? बादशाह ने उनके हाथ कटवा दिए। इसलिए कि वे कोई दूसरा ताजमहल न बना सकें। क्या उनकी कारीगरी का यही वाजिब इनाम था ?
श्रमिकों का शोषण तो हर सदी में होता रहा है। मुगल काल में भी मजदूर वर्ग गुलाम की तरह थे। अंग्रेज भारत में आए तो यहां के लोगों को मजदूर से अधिक नहीं समझते थे। कोई भी मेहनत का काम वे भारतीयों से ही कराते थे। मजदूरों पर अत्याचार का सिलसिला आजाद भारत में भी खत्म नहीं हुआ और अब जब देश में कई यूनियन बन गए तब भी मजदूर वहीं का वहीं है। मजदूरों के हित में बने संगठन उनका कितना भला करते हैं, यह कहने को बाकी नहीं रहा। कुछेक मामले अपवाद हो सकते हैं, पर अधिकतर मामलों में मजदूर को उनका हक नहीं मिल पाता। छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के समय में एक क्रांति शुरू हुई थी मजदूरों को वाजिब हक दिलाने की। नियोगी की तर्कशक्ति और आक्रोश के आगे अच्छे-भले उद्योगपति ठहर नहीं पाते थे। लेकिन शोषक वर्ग की आंख का कांटा बन चुके नियोगी को मौत की नींद सुला दिया गया। यह दुनिया का दस्तूर ही है कि जो संघर्ष के लिए आगे आएगा, उसे तमाम समस्याएं झेलनी तो पड़ेंगी ही। मजदूरों के लिए सरकारों ने कई तरह के नियम-कानून बनाए हैं ताकि उन्हें उनके हक की कमाई मिलनी सके। लेकिन राजनीति की शह पर पलती नौकरशाही और उद्योगपतियों की मिलीजुली साजिशों ने श्रमवीरों के पसीने का पूरा हक नहीं मिलने दिया है। छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में पलायन की समस्या अब भी बरकरार है। सवाल यह उठता है कि जब सरकारें मजदूरों के लिए कई काम प्रदेश में ही उपलब्ध करा रही है, तो आखिर पलायन क्यों ? अपने बीवी बच्चों को लेकर दूसरे प्रदेशों में जाने वाले मजदूर वर्ग कई बार ठेकेदारों और दबंगों के चंगुल में फंस जाते हैं। उसके बाद तो न उनका परिवार सुरक्षित रह पाता है और न ही उसकी मेहनत की कमाई उसे मिल पाती है। आए दिन प्रशासन के पास बंधुआ मजदूरों के मामले आते रहते हैं। मजदूर की मजबूरी का फायदा उठाने
वालों को सोचना चाहिए कि आखिर उसकी मेहनत और कारीगरी से ही हम एक अदद घर-मकान में रहने का सुख हा
सिल कर पाते हैं। आखिर किसने धरती पर खड़ी इमारतों को विशाल और बुलंद बनाया, दुनिया में मिली सुख-सुविधाओं के लिए किसने पसीना बहाया, यह गंभीर सोच का विषय है। मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसके हक की कमाई मिल जानी चाहिए। लेकिन मजदूरों का खून चूस चूस कर एयर कंडीशनर कमरों में बैठने वाले, महंगी
लग्जरी गाड़ियों में घूमने वाले, मजदूरों को हेय दृष्टि से देखने वाले यह तक नहीं सोचते कि दुनिया में मजदूर न होते तो यह विश्व कैसा दिखता, कैसा लगता ? मजदूर, कालका, मजदूर जिन्दाबाद, कुली, काला पत्थर, इंसाफ की आवाज जैसी कई फिल्मों में मजदूर वर्ग के साथ हो रहे शोषण को दिखाया गया है। ऐसे मौके पर दिलीप कुमार अभिनीत मजदूर फिल्म का यह गीत भारत के एक मजदूर की आकांक्षा को चिन्हांकित करता है।

हम मेहनतकश इस दुनिया से, जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग नहीं, इक खेत नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

आने वाले दिनों में मजदूरों की जीवनशैली बदलेगी, उनके हक की कमाई मिलेगी या फिर शोषक वर्ग मजदूरों की मेहनत और पसीने की कमाई पर साजिशें रचकर, उनका हक मारकर ऐसे ही इठलाता रहेगा, यह अंत्यंत सोचनीय है ।

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दैनिक छत्‍तीसगढ में ब्‍यूरो चीफ जिला जांजगीर-चांपा
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