कलयुग के बाबा और आध्यात्म

प्रस्तुतकर्ता व्‍यंग्‍य-बाण Monday, February 28, 2011

बाबा रामदेव ने विदेशों में जमा कालेधन को उजागर करने की पैरवी की है, पर दांव उल्टा पड़ गया और अब उनके वक्तव्यों से खार खाए लोग, उनके ट्रस्ट की संपत्ति का खुलासा करने की मांग कर रहे हैं। यह तो सर्वविदित है कि जिनके घर शीशे को हों, वे दूसरे के घरों पर पत्थर न उछालें, वरना नुकसान शीशे के घर में रहने वालों का ही अधिक होगा। बाबा रामदेव का फेंका हुआ तीर अब बूमरेंग की तरह वापिस लौटकर उन्हीं की तरफ आ रहा है। योगगुरू को यह तो सोच लेना चाहिए था कि राजनीति नाम की तलवार हर क्षेत्र पर लटक रही है, चाहे वह संसद हो, मीडिया हो या फिर अन्य उपक्रम, राजनीति की जद में हर कोई आ चुका है, तो योगगुरू कैसे राजनीति से बच सकते हैं, वह भी तब, जब उन्होंने राजनीति में आने का फैसला कर लिया है।
बहुत पुरानी कहावत है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे यानि दूसरों को उपदेश देने वाले बहुत मिल जाएंगे। उपदेश देना बहुत आसान है, खुद उन बातों पर अमल करना उतना ही मुश्किल। कलयुग में पाप बढ़े हैं, अत्याचार बढ़े हैं, मानवीयता रोज तिल-तिल कर मरती जा रही है। तो लोगों के मन में आध्यात्मिकता भी जमकर हिलोरें मार रही हैं। लगता है कि सतयुग, तेत्रायुग, द्वापरयुग और कलयुग में से, सबसे ज्यादा आध्यात्मिकता कलयुग में ही हो सकती है। हर रोज नया बाबा, नया प्रवचनकर्ता चैनलों पर दिखने लगे हैं। अहम् बात तो यह है कि तरह तरह के उलजलूल हरकतों, रहन-सहन से मानव जाति ने अपने लिए नई-नई मुश्किलें खड़ी की हैं। अब उनसे उबरने के लिए सबसे सस्ता और सरल तरीका उन्हें यही नजर आता है कि सीधे किसी बाबा की शरण में जाओ। कहा जाता है कि बिना गुरू के, भगवान नहीं मिलते, क्योंकि भगवान तक पहुंचने का ज्ञान और मार्ग गुरू ही बता सकते हैं। लेकिन गुरूओं को लेकर भी कई तरह के भ्रम की स्थिति है। देश में चल रहे एक बड़े पंथ के बाबा कहते हैं कि मांसाहार मत करो, यह राक्षसी प्रवृत्ति है। वहीं उसके समकक्ष चल रहे दूसरे पंथ के बाबा कहते हैं कि जो मन में आए वही करो, यदि मांसाहार करने की इच्छा है तो करो, इसमें कोई बुराई नहीं। बाबाओं के भक्त ऐसे मामले पर अलग-अलग तर्क देते हैं। पानी पियो छान के, गुरू बनाओ जान के जैसी बातें अब दरकिनार होने लगी हैं। लोग एक दूसरे के झांसे में आकर बिना किसी परख के बाबाओं को अपना हितचिंतक, दुख दर्द दूर करने और मुक्ति दिलाने वाला मानने लगे हैं। मुझे भी कई रिश्तेदारों ने तरह-तरह के तर्क देकर किसी गुरू, किसी बाबा का भक्त बनने के लिए कई खूबियां गिनाई। उन्हें चमत्कारी पुरूष बताया। सन् 2005 में दिल्ली में मैंने खुद अंधभक्ति की मिसाल देखी। एक विशाल प्रवचन शिविर में तीन दिनों तक रहा और कई प्रपंच देखे। बाबा की भक्त एक महिला, जो सरकारी स्कूल में शिक्षिका थी। वह सुबह सुबह ही शिविर में आसपास मौजूद भक्तों को मिठाई बांट रही थी और काफी खुश थी। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि क्या बात है किस बात की मिठाई बांटी जा रही है। महिला ने बताया कि उसका प्रमोशन हो गया है, अब वह प्रिसीपल बन गई है और यह सब बाबा का चमत्कार है। मैंने बातों ही बातों में उसकी बेटी से कुछ और जानकारियां ली, तो पता चला कि पिछले डेढ़ वर्ष से महिला के प्रमोशन की प्रक्रिया चल रही थी और इसी के तहत् उन्हें स्कूल का प्राचार्य बनाया गया है। भला बताईए, इसमें बाबा ने क्या चमत्कार किया, जो सरकारी प्रक्रिया थी उसी के कारण प्रमोशन हुआ, लेकिन अंधभक्ति या अंधविश्वास के चलते महिला को सबकुछ बाबा का किया धरा दिख रहा था।
आजकल छत्तीसगढ़ प्रदेश में एक बौध्द भंते बुध्द प्रकाश घूम-घूमकर अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं और चमत्कार, जादू के सच से परिचित करा रहे हैं। उनका कहना है कि अशिक्षितों की बात तो दूर है, देश का एक बड़ा शिक्षित वर्ग ही अंधविश्वास की चपेट में है। सबसे पहले उन्हें जगाना होगा।
कालेधन की बात करें तो यह 100 फीसदी सच है कि मठों में, धर्मादा ट्रस्टों में, किसी धर्म-कर्म वाले संस्थानों में जो भी धन आता है, क्या वो मेहनत से, ईमानदारी से, बिना किसी छलकपट के कमाया गया धन होता है ? एक और बात सामने आती रही है कि कई पूंजीपति अपना धन कथित कालाधन धार्मिक संस्थानों में लगाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही दिखता है कि धार्मिक संस्थानों के प्रति लोगों के मन में एक श्रध्दाभाव होता है, जिसे पहली बार में शक की नजर से नहीं देखा जा सकता। ऐसे में उन पूंजीपतियों के कथित कालेधन की रक्षा हो जाती है। उस धन को अन्य धंधों में भी लगाया जा सकता है। एक सच यह भी है कि देश में जितने भी बाबा नामी हैं, प्रसिध्द हैं, शोहरत वाले हैं, कम से कम मैंने उन्हें किसी गरीब की कुटिया में जाकर भोजन करते नहीं देखा, सुना और पढ़ा है। यानि जो धन देगा, वहीं बाबाओं का कृपापात्र होगा। अमीरों और गरीबों के लिए बाबाओं का अलग-अलग मापदंड एक बड़ा भेदभाव नहीं है ? सोचा जा सकता है कि क्या इस तरह के भेदभाव से कोई गुरू, किसी भक्त को भगवान से मिलवा सकता है ? ईश्वर ने तो गरीब रैदास, तुलसी, वाल्मिकी, मीरा और सूरदास को उनकी संपत्ति, धन धान्य और हैसियत देखकर दर्शन नहीं दिए थे। फिर परमपिता परमेश्वर तक पहुंचाने का दावा करने वाले बाबाओं को ऐसी दरकार क्यों ? लोगों को उपदेश देकर व्यवहार सुधारने, लोभ, मोहमाया से दूर रहने, अत्याचार, भेदभाव नहीं करने की सीख देने वाले बाबा क्या खुद इन चीजों से दूर हैं ? शास्त्रों में तो यही लिखा है कि भगवान का सच्चे मन से, निर्मल भाव से, छलकपट से दूर रहकर ध्यान करो तो एक दिन वे जरूर मिलेंगे। आत्मा में परमात्मा है, यह सोचकर ही कोई कार्य करें तो व्यर्थ के प्रपंच से बच सकते हैं, बाकी सब तो कलयुगी करामातें हैं।


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दैनिक छत्‍तीसगढ में ब्‍यूरो चीफ जिला जांजगीर-चांपा
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