14 जून - विश्व रक्तदाता दिवस पर विशेष

वर्तमान परिवेश में भले ही दुनिया की दूरी लोगों से सिमटकर कम होती जा रही है और विश्व के किसी भी कोने का परिदृश्य चंद मिनटों
में जाना जा सकता है। आधुनिक होते युग में बस्तर का नक्सलवाद भले ही अत्याधुनिक हथियारों के बल पर जवानों का खून बहाता रहे, एंटी लैंडमाइन गाड़ियों को ध्वस्त कर अपनी सफलता पर खुश होता रहे या फिर पुलिस और फौजी जवान नक्सलियों को मारकर फक्र महसूस करते रहें। लेकिन सच तो यही है कि ऐसे अंधे युध्द से न तो मानव जाति का भला हो सकता है और न ही किसी तरह का कोई विकास हो सकता है। दुनिया में मानववाद के लिए तमाम प्रयोग हुए हैं और कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। जिस रक्त की एक बूंद का महत्व अधिकतर लोग अब तक नहीं समझ पाए है, उसके लिए सैकड़ों वर्षों से वैज्ञानिकों ने कितना परिश्रम किया है। यह जानकर हैरानी होगी कि लगभग 500 वर्षों की मेहनत के बाद आज चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में यह सफलता मिल सकी है कि किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का खून सुरक्षित तरीके से आधान कर उसकी जान बचाई जा सकती है। यदि एक व्यक्ति अपने शरीर का अनमोल रक्त देकर दूसरे की जिंदगी बचाता है तो ऐसा कार्य महादान की श्रेणी में आता है। रक्तदान और आधान के संबंध में जो जानकारियां अब तक सामने आई हैं वे कम दिलचस्प नहीं हैं। रक्ताधान के संबंध में 17 वीं शताब्दी के इतिहास लेखक स्टीफैनो इन्फेसुरा ने प्रथम ऐतिहासिक प्रयास का सर्वप्रथम वर्णन करते हुए लिखा है कि सन् 1492 में जब पोप इन्नोसेंट गहन मूर्छा (कोमा) में चले गए,
तो एक चिकित्सक के सुझाव पर जीवन के अंतिम क्षणों में पोप (बिशप) के शरीर में तीन लड़कों का रक्त डाला गया (मुख से, क्योंकि परिसंचरण की अवधारणा एवं अंतःशिरा प्रवेश की विधियां उस समय अस्तित्व में नहीं थी)। लड़के दस वर्ष की उम्र के थे, और उनमें से प्रत्येक को एक सोने के सिक्के देने का वचन दिया गया था. हालांकि पोप नहीं बच सके। कुछ लेखकों ने इन्फेसुरा पर पोपवाद का विरोधी होने का आरोप लगाते हुए उसके विवरण को सही नहीं माना।
रक्ताधान संबंधी परिष्कृत अनुसंधान 17 वीं सदी में शुरू हुआ, जिसमें पशुओं के बीच रक्ताधान संबंधी सफल प्रयोग हुए। लेकिन मनुष्यों पर किए जाने वाले क्रमिक प्रयासों का परिणाम घातक बना रहा। सर्वप्रथम पूर्ण रूप से दस्तावेजीकृत मानव रक्ताधान फ्रांस के सम्राट लुई के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. जीन बैप्टिस्ट डेनिस द्वारा जून 15, 1967 में किया गया। उन्होंने एक भेड़ का रक्ताधान एक 15 वर्ष के लड़के में किया, जो रक्ताधान के बाद जीवित बच गया। डेनिस ने एक मजदूर का भी रक्ताधान किया और वह भी जीवित बच गया। दोनों उदाहरण संभवत रक्त की छोटी मात्रा के कारण थे जिसका वास्तव में इन लोगों में रक्ताधान किया गया था. इसने उन्हें ऐलर्जी संबंधी प्रतिक्रिया का सामना करने की अनुमति प्रदान की. रक्ताधान से गुजरने वाला डेनिस का तीसरा मरीज स्वीडिश व्यापारी बैरन बॉन्ड था. उन्होंने दो आधान प्राप्त किए. दूसरे आधान के बाद बॉन्ड की मृत्यु हो गई। पशु रक्त के साथ डेनिस के प्रयोगों ने फ्रांस में एक गर्म विवाद छेड़ दिया, अंततः 1670 में इस प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सही समय पर, ब्रिटिश संसद और यहां तक कि पोप ने भी यही किया. रक्ताधान अगले 150 वर्षों के लिए गुमनामी में चला गया।
रक्त आधान का विज्ञान 19 वीं सदी के प्रथम दशक के समय तक पुराना है जब भिन्न रक्त प्रकारों के परिणामस्वरूप आधान के पूर्व रक्त दाता एवं रक्त प्राप्तकर्ता के कुछ रक्त मिश्रित करने की परिपाटी शुरू हुई।
1818 में, ब्रिटिश प्रसूति-विशेषज्ञ, डॉ. जेम्स ब्लूनडेल ने प्रसवोत्तर रक्तस्राव का उपचार करने के लिए मानव रक्त का प्रथम सफल रक्ताधान संपादित किया. उन्होंने मरीज के पति का दाता के रूप में उपयोग किया, और उसकी पत्नी में आधान करने के
लिए उसकी बांह से चार औंस रक्त निकाला। वर्ष 1825 और 1830 के दौरान डॉ. ब्लून्डेल ने 10 आधान संपादित किए, जिनमें से पांच लाभप्रद रहे, और उन्होंने उनका परिणाम प्रकाशित किया. उन्होंने रक्त के आधान के लिए कई उपकरणों का भी आविष्कार किया. अपने प्रयास से उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में रूपया अर्जित किया, जो लगभग 50 मिलियन (1827 में लगभग 2 मिलियन) वास्तविक डॉलर (मुद्रास्फीति के लिए समायोजित) था।
1840 में सेंट जार्ज मेडिकल स्कूल लंदन में डॉ. ब्लून्डेल की सहायता से सैमुएल आर्मस्ट्रांग लेन ने प्रथम संपूर्ण रक्ताधान संपादित किया। रक्त संबंधी प्रयोगों के लिए जॉर्ज वॉशिंगटन क्राइल को क्लीवलैंड क्लिनिक में सीधे रक्ताधान का उपयोग कर शल्य-चिकित्सा संपादित करने का श्रेय दिया जाता है। सन् 1901 तक कई रोगियों की मृत्यु हो चुकी थी, जब ऑस्ट्रिया के वैज्ञानिक डा. कार्ल लैंडस्टेनर ने मानव रक्त समूहों की खोज की, जिससे रक्ताधान सुरक्षित हो गया। दो व्यक्तियों के रक्त का मिश्रण रक्त का एकत्रीकरण या संलग्नता उत्पन्न कर

सकता है, एकत्रित लाल कोशिकाओं में दरार पड़ सकती है और वे विषाक्त प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कर सकती हैं जिनके घातक परिणाम हो सकते हैं। कार्ल लैंडस्टेनर ने देखा कि रक्त का एकत्रीकरण एक रोगक्षमता संबंधी प्रक्रिया है जो उस समय उत्पन्न होता है जब रक्ताधान के प्राप्तकर्ता में दाता रक्त कोशिकाओं के विरुद्ध रोग-प्रतिकारक (ए,बी, ए एवं बी दोनों, या कोई भी नहीं) होते हैं. कार्ल लैंडस्टेनर के कार्य ने रक्त समूहों (ए, बी, एबी, ओ) के निर्धारण को संभव बना दिया एवं इस प्रकार सुरक्षित रूप से रक्ताधान क्रियान्वित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस खोज के लिए उन्हें 1930 में शरीर विज्ञान एवं चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हीं की याद में विश्व रक्तदाता दिवस मनाया जाता है।
1930 के अंतिम दशक एवं 1940 के दशक के आरंभ में, डॉ. चार्ल्स आर. ड्रियू के अनुसंधान ने इस खोज को जन्म दिया कि रक्त को रक्त प्लाज्मा एवं लाल रक्त कोशिकाओं में विभाजित किया जा सकता है एवं प्लाज्मा को अलग से जमाया जा सकता है। इस तरह से जमाया गया रक्त अधिक लंबे समय तक कायम रहा एवं उसके दूषित हो जाने की संभावना काफी कम थी।
1939-40 में एक और महत्वपूर्ण सफलता मिली, जब डा. कार्ल लैंडस्टेनर, एलेक्स वीनर, फिलिप लेविन, एवं आर.ई. स्टेटसन ने रीसस रक्त समूह प्रणाली की खोज की, जिसे उस समय तक आधान संबंधी बहुसंख्यक प्रतिक्रियाओं का कारण माना गया। तीन साल बाद, जे.एफ. लूटिट एवं पैट्रिक एल. मॉलिसन के द्वारा स्कन्दनरोधी की मात्रा को कम करने वाले एसिड- साइट्रेट-डेक्स्ट्रोज (एसीडी) के घोल के व्यवहार ने अधिक परिमाण में रक्ताधान एवं दीर्घावधि तक भंडारण की अनुमति प्रदान की।
कार्ल वाल्टर और डब्ल्यू. पी. मर्फी जूनियर ने 1950 में रक्त संग्रह के लिए प्लास्टिक बैग के व्यवहार की शुरूआत की. भंगुर कांच के बोतलों की जगह टिकाऊ प्लास्टिक बैग के व्यवहार ने खून की एक संपूर्ण यूनिट से बहु रक्त अवयव की सुरक्षित एवं सरल तैयारी के लिए सक्षम एक संग्रह प्रणाली के विकास की अनुमति प्रदान की। इस तरह दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने मानव जाति को जीवन देने संबंधी रक्तदान पर अपना योगदान दिया है। मेरा स्वयं का अनुभव रहा है कि अपने सगे संबंधियों परिचितों को रक्तदान करने से कई लोग परहेज करते हैं। शहरी क्षेत्रों में तो कई संस्थाएं ऐसे कार्यों में लगी होती हैं, जिससे आसानी से खून उपलब्ध हो जाता है। लेकिन ग्रामीण तथा कस्बाई क्षेत्रों में जागरूकता के अभाव में यह समस्या अब भी बरकरार है। डाक्टरों के अनुसार एक बार रक्तदान करने के बाद तीन महीने तक दोबारा रक्त नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन कुछ लोग मजबूरी के चलते या फिर नशे से पीड़ित अपना शौक पूरा करने के लिए खून बेच देते हैं। लहू चाहे बस्तर में बहे या भारत-पाकिस्तान की सरहद पर या फिर विश्व के किसी भी हिस्से में, उसे किसी भी तरह से सही नहीं माना जा सकता। मानवता के लिए विश्व को शांति की जरूरत है न कि अंधे युध्द की। ऐसे में किसी का रक्त बहाने से ज्यादा जरूरी है जीवन देना। इसलिए रक्तपिपासा छोड़कर रक्तदाता बनना बेहतर है। इसीलिए तो कहा गया है कि
जीना तो है उसी का, जिसने ये राज जाना,
है काम आदमी का, औरों के काम आना।
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