37 वर्षों से एक ही बिस्तर पर कोमा का दंश झेल रही अरूणा शानबाग को इच्छा मृत्यु दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने भी असहमति जता दी है यानि फिलहाल उसकी मौत अब हरि इच्छा पर ही निर्भर है। पुरूष प्रधान देश में सदियों से नारी शोषण का शिकार होती आई है। खुद को पाक साफ बताने माता सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी, अहिल्या को पत्थर की मूरत बनकर श्राप झेलना पड़ा और कृष्णभक्त मीरा को जहर का प्याला पीना पड़ा। पुरूषत्व के दंभ और अत्याचार की कलयुगी परिणिति शाहबानो, नैना साहनी, जेसिका और अब अरूणा शानबाग के रूप में सामने आई है। अरूणा शानबाग की कहानी भी एक बहुत ही भयानक नाइंसाफी की मिसाल है। जो उसके साथ काम करने वाले वार्ड ब्वाय सोहनलाल ने की, क्योंकि अरूणा ने सोहनलाल के खिलाफ अस्पताल प्रबंधन से की थी और जिसकी सजा वह 37 वर्षों से झेल रही है। पर सोहनलाल को सिर्फ 7 बरस की सजा हुई और उसके बाद वह जेल से छूट गया, अब कहां है किसी को मालूम नहीं। नाइंसाफी जो उसके साथ कुदरत ने की है उसकी पीड़ा देखते हुए भी जिंदा रखा और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे इच्छा मृत्यु दिए जाने पर मनाही कर दी।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पहले अरूणा शानबाग को इच्छा मृत्यु दिए जाने संबंधित खबरें चैनलों पर देखकर इस मुद्दे पर खुद को लिखने से नहीं रोक पाया। यह महज एक संयोग भी हो सकता है कि जिस दिन 27 नवंबर 1973 को अरूणा शानबाग के साथ अत्याचार हुआ, उसके 4 दिन पहले ही यानि 23 नवंबर 1973 को मैंने भी इस नश्वर संसार में जन्म लिया। अब जब महिला दिवस के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है 7 मार्च को, तो 8 मार्च यानि महिला दिवस का दिन भी मेरे लिए खासा महत्व रखता है मेरे लिए, क्योंकि इसी तारीख को मेरे जीवन में एक नारी का प्रवेष हुआ था। जो मेरी अर्धांगिनी है।
दुनिया में नारी पर हुए अत्याचारों की दास्तान बहुत लंबी है। नारी सिर्फ उपभोग की चीज है या फिर अत्याचार किए जाने का सामान ? मैं तो यह सोचता हूं कि जो पुरूष इस दंभ के साथ जीता है कि वह पुरूष है, उसे भगवान को एक बार जरूर नारी बनने का मौका देना चाहिए। बचपन में घर से शुरू हुआ भेदभाव, जवानी में जमाने की तीखी नजरों से खुद को बचाए रखने की कवायद, शादी के बाद ससुराल में मिले दंश, नौ महीने तक गर्भ में पल रहे शिशु का बोझ, चिंता, प्रसव पीड़ा और जिंदगी में कई तरह के संघर्ष से लदी नारी के मुकाबले पुरूष का जीवन काफी सरल होता है। संघर्ष तो पुरूष के हिस्से में भी कम नहीं होते, लेकिन जो शारिरिक कष्ट एक नारी सहती है, उसकी तुलना पुरूष से किया जाना तो संभव ही नहीं।
इसके साथ ही नारी की महानता को भी कम नहीं आंका जा सकता, एक मां, बहन, पत्नी और बेटी के रूप में पुरूष को उसका सहयोग अविस्मरणीय होता है। लेकिन नारी पर हो रहे अत्याचार को देखते हुए कई लोगों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि अगले जनम मोहे बिटिया न दीजो। अधिकतर लोगों की आस होती है कि उनके घर में पहले बेटा ही जन्म ले, बिटिया का नंबर उसके बाद हो। इसका सबसे बड़ा कारण की बेटे को कुलदीपक यानि वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है। क्या कोई यह चाहेगा कि उसका वंश आगे न चले। लेकिन जब कुलदीपक घर-परिवार का नाम रोशन करने की बजाय घर को ही फूंक देते हैं। तब याद आती है कि इससे अच्छा तो भगवान मुझे एक बेटी दे देता। बुजुर्ग मां-बाप के साथ रहते हुए भी बेटे को उसकी कोई खास चिंता नहीं होती, लेकिन ससुराल में रहते हुए भी बेटियां अपने मां-पिता की बराबर चिंता करती हैं। यह एक बड़ी बहस का मुद्दा है कि स्त्री और पुरूष में क्या अंतर हैं जो उनके सामाजिक जीवन पर कितना अंतर, किस तरह से डालते हैं। बहरहाल बात अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की है, अरूणा शानबाग की है, जेसिका, शाहबानो, नैना साहनी पर हुए अत्याचार की है। मेरा तो यही मानना है कि चाहे जितने भी अधिकार संविधान में नारी को मिल जाएं, पर उसका असली सम्मान तब होगा, जब पुरूष वर्ग अपना दंभ छोड़कर यह मानने को तैयार हों कि स्त्री और पुरूष एक ही रथ के दो पहिए है। जिस तरह ताली एक हाथ से नहीं बजती, उसी तरह स्त्री के बिना पुरूष का और पुरूष के बिना स्त्री का जीवन अधूरा है। लेकिन यह बात देश नारियों पर अत्याचार करने वालों को आखिर कब समझ में आएगी ?
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