- 14 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष

रूह में समा जाने वाली कशिश भरी आवाज, जिसे सुनकर मदन मोहन साहब के बारे में जानने की उत्सुकता जाग उठती है। सेना में बंदूक थामने वाले हाथ जाने कब हारमोनियम पर संगीत रचाने लगे, यह पता ही न चला और देश के महान संगीतकारों में से एक मदन मोहन का नाम भी इस क्षेत्र में मील का पत्थर बन गया। 1950 से 1970 तक के तीन दशकों में जिनके गीतों की धूम रही, ऐसे रूहानी संगीत के अनूठे फनकार, गजल के शहजादे का पूरा नाम था मदन मोहन कोहली।
इराक के बगदाद में 25 जून 1924 को रायबहादुर चुन्नीलाल के घर मदन मोहन का जन्म हुआ। पिता रायबहादुर साहब इराकी सेना में एकाउंटेट जनरल थे। भारत आने के बाद रायबहादुर फिल्म व्यवसाय से जुड़ गए और फिल्मीस्तान जैसे मशहूर स्टूडियो में साझीदार बन गए थे। वे फिल्मी दुनिया के मिजाज को समझते थे, इसलिए मदन मोहन को सेना में भर्ती होने के लिए देहरादून भेज दिया। जहां सन् 1943 में वे लेफ्टीनेंट बन गए। सेना में नौकरी करते हुए मदन मोहन का स्थानांतरण दिल्ली हो गया। वहां उनका मन सेना के कार्य में नहीं लगा और संगीत की तरफ खिंचाव होने लगा। तब उन्होंने सेना छोड़कर लखनऊ आकाशवाणी में नौकरी कर ली, जहां सुरों की मलिका सुरैया भी उनके साथ गाती थी।
इसी दौरान उस्ताद अकबर अली खान, उस्ताद फैयाज खान, तलत मेहमूद और बेगम अख्तर जैसे नामी गिरामी फनकारों से उनकी मुलाकात हुई। अपनी विलक्षण संगीत प्रतिभा के दम पर मदन मोहन को ख्यातिलब्ध संगीतकारों सी. रामचंद्र, एस. डी. बर्मन, श्याम सुंदर के साथ सहायक के रूप में काम करने का मौका मिला। उसके बाद पहली बार सन् 1950 में देवेन्द्र गोयल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आंखें‘ के लिए स्वतंत्र रूप से संगीतकार बनकर अपनी धुनें दी। नए-नवेले संगीतकार मदनमोहन के साथ उस जमाने के मशहूर गायक मुकेश, मो. रफी, शमशाद बेगम, राज खोसला तो गाने को तैयार हो गए, लेकिन लता मंगेशकर ने इंकार कर दिया। तब ‘मेरी अटरिया पे कागा बोले‘ गीत उन्होंने मीना कपूर से गवाया। यहां से शुरू हुआ संगीत का सफर तो जैसे तीन दशक तक बिना सांस लिए लगातार चलता रहा। उसके बाद लता जी भी उनके संगीत की कायल हो गईं और आपकी नजरों ने समझा, मेरा साया साथ होगा, नैना बरसे, नैनों में बदरा छाए, माई री मैं कासे कहूं, अगर मुझसे मोहब्बत है, खेलो न मेरे दिल से, लग जा गले, न तुम बेवफा हो, वो भूली दास्तां, मैं तो तुम संग नैन मिलाके सहित लगभग 210 गाने मदन मोहन की धुनों पर गाए। तलत महमूद, मुकेश, शमशाद बेगम, मो. रफी, मन्नाडे, आशा भोंसले, गीता दत्त,
किशोर कुमार आदि गायकों के साथ मदन मोहन के संगीत का सफर तीन दशक तक लगातार चलता रहा। लेकिन लता मंगेशकर के साथ तो उनकी संगत जैसे ईश्वर द्वारा नियत की गई कोई रूहानी रचना थी। संगीतकार ओ. पी. नैयर ने कभी लता जी से गाना नहीं गवाया, लेकिन दोनों के बारे में उन्होंने कहा था कि जिस तरह देश को लता दोबारा मिलना मुश्किल है, ठीक उसी तरह मदन जी जैसे संगीतकार भी दोबारा शायद ही मिलें। संगीतकार एस. डी. बर्मन ने कहा था कि जैसा संगीत मदन मोहन ने फिल्म हीर-रांझा में दिया था, वे उसका आधा संगीत भी नहीं दे सकते थे। लता जी उन्हें ‘गजल का शहजादा‘ कहती थीं। हंसते जख्म फिल्म का गीत ‘आज सोचा...तो आंसू भर आए‘ गाते वक्त लता जी रो पड़ी थीं। गीतकार जयदेव ने कहा कि मदन मोहन जैसा संगीतकार दूसरा नहीं हो सकता। मदन जी अति संवेदनशील इंसान थे, एक बार अगर कोई बात उनके दिल पे लग जाती थी तो उसे ताउम्र नहीं भूलते थे। ऐसा ही एक वाक्या सन् 1972 में तब हुआ, जब उनकी संगीत टीम के सितारवादक राईस खान ने अपने एक अन्य दोस्त के यहां दावत में गाने को कहा और यह पूछ लिया कि वहां गाने के कितने पैसे लोगे ? इस बात से मदन मोहन को दिल पर इतनी चोट लगी कि उस दिन के बाद से अपनी मृत्यु होने तक अपने संगीत में सितार का प्रयोग ही बंद कर दिया। चराग दिल का जलाओ, फिर वही शाम, वही गम, मेरी याद में तुम न आंसू बहाना, इक हसीन शाम को, रंग और नूर की बारात, तेरी आंखों के सिवा, हम चल रहे थे जैसे कई सुपरहिट गीतों पर अपनी संगीत रचना देने वाले मदन मोहन के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आए। यह एक तरह का दुर्भाग्य ही था कि जिन फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया, उनमें से अधिकतर बाक्स आफिस पर टिक नहीं सकीं। लेकिन उनके द्वारा रचित संगीत से सजा हर गीत सुनने के बाद लगता है
कि जैसे समां ठहर गया हो। फिल्मी दुनिया के स्वार्थ, खेमेबाजी, गुटबाजी के चक्कर में उन्हें कई बार नुकसान हुआ। जिसके कारण वे शराब के आदी हो गए थे। अंततः 14 जुलाई सन 1975 में लीवर में क्षति के कारण उनकी मौत हो गई। उनके संगीत निर्देशन में बन रही फिल्म मौसम व लैला मजनू उनकी मौत के बाद रिलीज हुई और सन् 2004 में यश चोपड़ा की फिल्म वीर-जारा में मदन मोहन की उन धुनों को लिया गया, जिन्हें वे अपने जीते-जी प्रयोग नहीं कर सके थे। संगीतकार होने के साथ-साथ वे अच्छे गायक भी थे। कुछ गीत जिन पर उन्होंने अपना संगीत तो दिया, लेकिन वे लोगों के सामने नहीं आ पाए। उनमें से एक गीत ‘कैसे कटेगी जिंदगी तेरे बगैर‘ मो. रफी ने गाया था और दूसरा दुर्लभ गीत ‘मेरे अश्कों का गम न कर ऐ दिल‘ लता जी ने गाया था। वैसे इस गीत की रिकार्डिंग उनके प्रशंसकों के पास स्व. मदन मोहन जी की पुरकशिश आवाज में भी सुनने को मिल जाती है। दुनिया से जो दर्द उन्हें मिला, उसकी तड़प इस दुर्लभ, अनछुए गीत से रूह को भी झकझोर देती है।

मेरे अश्कों का गम न कर ऐ दिल, अपनी बरबादियों से डर ऐ दिल,
सिलसिला रोक बीती बातों का, वरना तड़पेगा रात भर ऐ दिल।।

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दैनिक छत्‍तीसगढ में ब्‍यूरो चीफ जिला जांजगीर-चांपा
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