बहुत पुरानी कहावत है कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे यानि दूसरों को उपदेश देने वाले बहुत मिल जाएंगे। उपदेश देना बहुत आसान है, खुद उन बातों पर अमल करना उतना ही मुश्किल। कलयुग में पाप बढ़े हैं, अत्याचार बढ़े हैं, मानवीयता रोज तिल-तिल कर मरती जा रही है। तो लोगों के मन में आध्यात्मिकता भी जमकर हिलोरें मार रही हैं। लगता है कि सतयुग, तेत्रायुग, द्वापरयुग और कलयुग में से, सबसे ज्यादा आध्यात्मिकता कलयुग में ही हो सकती है। हर रोज नया बाबा, नया प्रवचनकर्ता चैनलों पर दिखने लगे हैं। अहम् बात तो यह है कि तरह तरह के उलजलूल हरकतों, रहन-सहन से मानव जाति ने अपने लिए नई-नई मुश्किलें खड़ी की हैं। अब उनसे उबरने के लिए सबसे सस्ता और सरल तरीका उन्हें यही नजर आता है कि सीधे किसी बाबा की शरण में जाओ। कहा जाता है कि बिना गुरू के, भगवान नहीं मिलते, क्योंकि भगवान तक पहुंचने का ज्ञान और मार्ग गुरू ही बता सकते हैं। लेकिन गुरूओं को लेकर भी कई तरह के भ्रम की स्थिति है। देश में चल रहे एक बड़े पंथ के बाबा कहते हैं कि मांसाहार मत करो, यह राक्षसी प्रवृत्ति है। वहीं उसके समकक्ष चल रहे दूसरे पंथ के बाबा कहते हैं कि जो मन में आए वही करो, यदि मांसाहार करने की इच्छा है तो करो, इसमें कोई बुराई नहीं। बाबाओं के भक्त ऐसे मामले पर अलग-अलग तर्क देते हैं। पानी पियो छान के, गुरू बनाओ जान के जैसी बातें अब दरकिनार होने लगी हैं। लोग एक दूसरे के झांसे में आकर बिना किसी परख के बाबाओं को अपना हितचिंतक, दुख दर्द दूर करने और मुक्ति दिलाने वाला मानने लगे हैं। मुझे भी कई रिश्तेदारों ने तरह-तरह के तर्क देकर किसी गुरू, किसी बाबा का भक्त बनने के लिए कई खूबियां गिनाई। उन्हें चमत्कारी पुरूष बताया। सन् 2005 में दिल्ली में मैंने खुद अंधभक्ति की मिसाल देखी। एक विशाल प्रवचन शिविर में तीन दिनों तक रहा और कई प्रपंच देखे। बाबा की भक्त एक महिला, जो सरकारी स्कूल में शिक्षिका थी। वह सुबह सुबह ही शिविर में आसपास मौजूद भक्तों को मिठाई बांट रही थी और काफी खुश थी। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि क्या बात है किस बात की मिठाई बांटी जा रही है। महिला ने बताया कि उसका प्रमोशन हो गया है, अब वह प्रिसीपल बन गई है और यह सब बाबा का चमत्कार है। मैंने बातों ही बातों में उसकी बेटी से कुछ और जानकारियां ली, तो पता चला कि पिछले डेढ़ वर्ष से महिला के प्रमोशन की प्रक्रिया चल रही थी और इसी के तहत् उन्हें स्कूल का प्राचार्य बनाया गया है। भला बताईए, इसमें बाबा ने क्या चमत्कार किया, जो सरकारी प्रक्रिया थी उसी के कारण प्रमोशन हुआ, लेकिन अंधभक्ति या अंधविश्वास के चलते महिला को सबकुछ बाबा का किया धरा दिख रहा था।
आजकल छत्तीसगढ़ प्रदेश में एक बौध्द भंते बुध्द प्रकाश घूम-घूमकर अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जगाने का काम कर रहे हैं और चमत्कार, जादू के सच से परिचित करा रहे हैं। उनका कहना है कि अशिक्षितों की बात तो दूर है, देश का एक बड़ा शिक्षित वर्ग ही अंधविश्वास की चपेट में है। सबसे पहले उन्हें जगाना होगा।
कालेधन की बात करें तो यह 100 फीसदी सच है कि मठों में, धर्मादा ट्रस्टों में, किसी धर्म-कर्म वाले संस्थानों में जो भी धन आता है, क्या वो मेहनत से, ईमानदारी से, बिना किसी छलकपट के कमाया गया धन होता है ? एक और बात सामने आती रही है कि कई पूंजीपति अपना धन कथित कालाधन धार्मिक संस्थानों में लगाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही दिखता है कि धार्मिक संस्थानों के प्रति लोगों के मन में एक श्रध्दाभाव होता है, जिसे पहली बार में शक की नजर से नहीं देखा जा सकता। ऐसे में उन पूंजीपतियों के कथित कालेधन की रक्षा हो जाती है। उस धन को अन्य धंधों में भी लगाया जा सकता है। एक सच यह भी है कि देश में जितने भी बाबा नामी हैं, प्रसिध्द हैं, शोहरत वाले हैं, कम से कम मैंने उन्हें किसी गरीब की कुटिया में जाकर भोजन करते नहीं देखा, सुना और पढ़ा है। यानि जो धन देगा, वहीं बाबाओं का कृपापात्र होगा। अमीरों और गरीबों के लिए बाबाओं का अलग-अलग मापदंड एक बड़ा भेदभाव नहीं है ? सोचा जा सकता है कि क्या इस तरह के भेदभाव से कोई गुरू, किसी भक्त को भगवान से मिलवा सकता है ? ईश्वर ने तो गरीब रैदास, तुलसी, वाल्मिकी, मीरा और सूरदास को उनकी संपत्ति, धन धान्य और हैसियत देखकर दर्शन नहीं दिए थे। फिर परमपिता परमेश्वर तक पहुंचाने का दावा करने वाले बाबाओं को ऐसी दरकार क्यों ? लोगों को उपदेश देकर व्यवहार सुधारने, लोभ, मोहमाया से दूर रहने, अत्याचार, भेदभाव नहीं करने की सीख देने वाले बाबा क्या खुद इन चीजों से दूर हैं ? शास्त्रों में तो यही लिखा है कि भगवान का सच्चे मन से, निर्मल भाव से, छलकपट से दूर रहकर ध्यान करो तो एक दिन वे जरूर मिलेंगे। आत्मा में परमात्मा है, यह सोचकर ही कोई कार्य करें तो व्यर्थ के प्रपंच से बच सकते हैं, बाकी सब तो कलयुगी करामातें हैं।
सूनी सड़क पर सुबह-सुबह एक काफिला सा चला आ रहा था, आगे-आगे कुछ लोग अर्थी लिए हुए तेज कदमों से चल रहे थे। राम नाम सत्य है के नारे बुलंद हो रहे थे। शहर में ये कौन भला मानुष स्वर्गधाम की यात्रा को निकल गया, पूछने पर कुछ पता नहीं चला। मैने एक परिचित को रोका, लेकिन वह भी रूका नहीं। मैं हैरान हो गया, हर चीज में खबर ढूंढने की आदत जो है, तो मैने अपने शहर के ही एक खबरीलाल को मोबाईल से काल करके पूछा। उसने कहा घर पर हूं, यहीं आ जाओ फिर आराम से बताउंगा। मेरी दिलचस्पी और भी बढ़ती जा रही थी। आखिर शहर के भले मानुषों को हो क्या गया है जो एकबारगी मुझे बताने को तैयार नहीं कि धल्ले आवे नानका, सद्दे उठी जाए कार्यक्रम आखिर किसका हो गया था। फिर भी जिज्ञासावश मैं खबरीलाल के घर पहुंच गया। बदन पर लुंगी, बनियान ताने हुए खबरीलाल ने मुझे बिठाया और अपनी इकलौती पत्नी को चाय-पानी भेजने का आर्डर दे दिया। मैंने कहा, अरे यार, कुछ बताओ भी तो सही, तुम इतनी देर लगा रहे हो और मैं चिंता में पड़ा हुआ हूं कि कौन बंदा यह जगमगाती, लहलहाती, इठलाती दुनिया छोड़ गया। खबरीलाल ने कहा थोड़ा सब्र कर भाई, जल्दी किस बात की है।
मैंने कहा, मुर्गे की किस्मत में कटना तो लिखा ही होता है। अब इसमें बेचारे घोटालेबाजों का क्या दोष।
खबरीलाल ने फिर से अपना ज्ञान बघारते हुए कहा, तुम समझ नहीं रहे हो। अरे भाई, मुर्गे को पालने वाली मालकिन के बारे में तुम्हें पता नहीं है। उसने इस कलगी वाले मजबूर मुर्गे को क्यों पाला ? यह मुर्गा लड़ाकू मुर्गों जैसा नहीं है। यह तो बिलकुल सीधा-सादा है, इसने अब तक घर के बाहर दूर-दूर क्या, आसपास की गंदगी पर फैला भ्रष्टाचार का दाना भी कभी नहीं चुगा। मालकिन कहती है कि बैठ जा, तो बैठ जाता है, फिर कहती है कि खड़े हो जा, तो खड़े हो जाता है। बेचारा जगमगाती दुनिया में हो रहे तरह-तरह के करम-कुकर्म से दूर है। लेकिन क्या करें, मालकिन के पड़ोसियों की नजर इस पर कई दिनों से गड़ गई है। इसलिए बिना कोई अगड़म-बगड़म की परवाह किए इसे निपटाने के लिए प्रपंच रचते रहते हैं। इतना स्वामीभक्त है कि एक बार इसके साथी मुर्गे ने पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है, तो पता है इसने क्या कहा। इसने कहा कि मेरा नाम तो सुंदरलाल है, फिर भी मालकिन से पूछ कर बताउंगा, बताओ भला, कोई और होता तो इतना आज्ञाकारी होता क्या ? अब ऐसे मुर्गे को भाई लोग बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
मैंने झल्लाते हुए कहा कि अरे यार, मैं उस अर्थी के बारे में पूछने आया था और तुमने मुर्गा, मालकिन, घोटाला की कहानी शुरू कर दी।
उसने हाथ उठाकर किसी दार्शनिक की तरह कहा, अरे शांत हो जा भाई, यह सब उसी अर्थी से जुड़ी कहानी का हिस्सा है। असल में गांव, शहर, महानगर के भले लोग, रोज-रोज घोटालों से तंग आ चुके हैं। अब घोटाले हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे, तो भलेमानुषों ने सोचा कि जब घोटाला, भ्रष्टाचार करने वाले इतनी दीदादिलेरी से इतरा रहे हैं, खुलेआम घूम रहे हैं, निडर हैं, बेधड़क हैं, शान से मूंछें ऐंठ रहे हैं, तो हम क्यों स्वाभिमानी, ईमानदार, सदाचारी, देशप्रेमी बने रहें। इसीलिए अपना यह सुघ्घड़ सा चोला उतारकर उसकी अर्थी निकाल दी है और उसे फंूकने के लिए शमशान घाट गए हैं। शाम को श्रध्दांजली सभा भी है, तुम चलोगे ?
मैंने खबरीलाल को दोनों हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर कहा कि धन्य हो श्रीमान, आप और आपका ज्ञान दोनों ही सत्य है।
खबरीलाल ने कहा, याद रखो मित्र कि जीवन का अंतिम सच, राम नाम सत्य ही है। जाने कब, इस सीधे-सादे, कलगीवाले, आज्ञाकारी मुर्गे का भी राम नाम सत्य हो जाए ?
नेपाल रेडियो से गीत-संगीत का सफर शुरू करने वाले बालीवुड के सुप्रसिध्द पार्श्व गायक पद्श्री उदित नारायण पांच दिवसीय जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव में शिरकत करने पहुंचे, जहां उन्होंने तकरीबन दो घंटे तक हिन्दी फिल्मों में खुद के गाए हुए गीत पेश किए। कार्यक्रम खत्म होने के बाद आधी रात को दो बजे कुछ मिनटों के लिए मंच के बाजू में बनाए गए ग्रीन रूम में उदित नारायण ने रतन जैसवानी से संक्षिप्त बातचीत की।
0 बालीवुड में रोज नए-नए गायक उभर रहे हैं, जितनी जल्दी इन्हें मौका मिल रहा है, उतनी से तेजी से वे गुमनाम भी हो जा रहे हैं, क्या वजह लगती है।
00 दरअसल जमाना बदल रहा है, उसके साथ ही संगीत में काफी बदलाव आया है, रियलिटी शो हो रहे हैं, तो नए-नए युवाओं की प्रतिभा भी सामने आ रही है। लेकिन सच तो यही है कि इतनी प्रतिस्पर्धा के बावजूद जो गीत-संगीत की रूह को समझता है, उसे अपनी आत्मा में बसा लेता है, वही यहां टिक पाता है।
0 गीत-संगीत के क्षेत्र में सफर की शुरूआत कैसे हुई ?
00 नेपाल रेडियो में कार्यक्रम पेश करता था, उसके बाद सन् 1980 में मोहम्मद रफी के साथ गाने का मौका मिला तो पहला गीत उन्हीं के साथ गाया। फिल्म थी उन्नीस-बीस, जिसमें संगीतकार राजेश रोशन ने मुझे मौका दिया गाने का।
0 संघर्ष भी करना पड़ा था बालीवुड में ?
00 बिलकुल, मुंबई की मायानगरी में बिना संघर्ष के कुछ नहीं मिलता है। वह दौर नामी गायकों का था, मौसिकी के मसीहा मोहम्मद रफी साहब, हर दिल अजीज बन चुके किशोर दा। बड़े दिलवाला फिल्म में किशोर दा ने गाया था जीवन के दिन छोटे सही, हम भी बड़े दिलवाले। इसी गीत को मैंने और लताजी ने डुएट गाया था।
0 किन-किन भाषाओं में अब तक गाने गाए हैं आपने ?
00 नेपाल रेडियो में था तो नेपाली, मैथिली भाषा में गाता था, फिर बालीवुड पहुंचा तो भोजपुरी, हिंदी गाने गाए, लगभग 30 भाषाओं में गा चुका हूं। लेकिन सबसे बड़ा ब्रेक या कहिए कि मुझे पहचान मिली 1988 में, जब आमिर खान, जूही चावला अभिनीत फिल्म कयामत से कयामत तक में गाने का मौका मिला। फिल्म इतनी हिट हुई कि इसका गीत-संगीत आज भी लोगों को लुभाता है।
0 आपका बेटा भी गायक बन चुका है, पत्नी भी इसी विधा में हैं, कैसा लगता है ?
00 ये तो ईश्वर की देन है कि आदित्य ने मेहनत की, दीपा भी आजकल गा रही हैं। घर में संगीत का माहौल है तो लगता है कि उपरवाले की बहुत कृपा है।0 आपकी सफलता का क्या मंत्र है ?
00 बस यही कि कर्म में विश्वास करना चाहिए, मेहनत में कमी नहीं हो और ईश्वर पर भरोसा होना चाहिए, सफलता आपके कदम चूमेगी।
0 यहां का माहौल कैसा लगा ?
00 सच कहूं तो छत्तीसगढ़ की मिट्टी में अपनेपन की खुशबू है। यहां आकर ऐसा लगा कि जैसे अपने घर में हूं। जवाब नहीं, बहुत मजा आया।